6 जून 2016

अमेरिकी अंतरिक्ष विज्ञान छोड़ भारत आकर हाथ में ली झाड़ू

( विश्व पर्यावरण दिवस पर डॉ आनंद राय )

( डॉ  राय अब आगरा में )
आगरा। अमेरिका घूम कर लौटे हर भारतीय के मुह से आप एक बात जरूर सुनेंगे  "वाह कितना साफ़ सुथरा देश है.....गन्दगी का तो कहीं नामोनिशान नहीं....और एक अपना देश है.... !"
इसी परपेक्ष्य में प्रस्तुत है मेरा एक संस्मरण - बात उन दिनों की है जब मैं अमेरिकी मंगल ग्रह अभियान के लिये शोध कार्य कर रहा था. मेरे एक मित्र भारत भ्रमण पर आये. उन्होंने आगरा आ कर ताज भी देखा. वापस लौट कर उन्होंने बताया कि भारतीय बहुत ही मृदुभाषी व मिलनसार हैं. संस्कृति व रीति रिवाज बेहद सम्मान के काबिल है. ताज महल ने दिल ही जीत लिया. वाकई बेहद खूबसूरत है आदि. उन्होंने आगे बताया कि आगरा भ्रमण के दौरान एक बहुत ही नायाब चीज़ देखी. “सडकों के किनारे कूड़े के ढेर लगे होते हैं जिन्हें होली काऊ (पवित्र गऊ माता), पिग (सूअर) व डौग्स (कुत्ते) आपसी सद्भाव के साथ खा कर खतम कर देते हैं”. मैं शर्म से गड गया. हज़ारों मील दूर गैर मुल्क में एक विदेशी के मुह से अपने प्यारे वतन के लिये ऐसी बातें सुन कर जो तकलीफ की अनुभूति हुई वह आज भी ताज़ा है. सो अमेरिकी अंतरिक्ष विज्ञान त्याग आज कल हाथ में झाड़ू थाम लिया है...

अब कपोल चिंतन - अमेरिका की जिस खासियत की हम सभी तारीफ़ करते नहीं आघाते, आखिर उसके प्रति हम खुद कितने संजीदा हैं ? स्वच्छता आदि काल से भारतीय संस्कृति का अहम अंग रही है. उसे तो हर नागरिक के खून में होना चाहिए था. फिर आज ऐसे अफसोसजनक हालत क्यों हैं ? क्या हमारी जिम्मेदारी हमारे अपने घर की हदों तक ही सीमित है ? यह शहर यह देश हमारा नहीं है ? क्या शासन प्रशासन को कोसने मात्र से हमारे अपने कर्तव्यों की इतिश्री हो जाती है ? कब व कैसे सुधरेंगे हम ? कूड़ा/गन्दगी सिर्फ देखने में ही बुरे नहीं होते, बल्कि पर्यावरण के लिये भी बेहद घातक है. हमें इस बात का कितना अहसास है ?