-- कश्मीर के परिप्रेक्ष्य में आज के भीष्म पितामाह हैं 'डा कर्णसिंह 'गुपकार गठबन्धन के महारथी । ( इन्सेट ) डा कर्ण सिंह
अन्य संभावनाओं और मामलों में चर्चारत रहे वार्ता को आमंत्रित 14 प्रतिनिधियों में से किसी ने भी अपने स्तर पर और नहीं भारतस सरकार को ही , पूर्व केन्द्रीय मंत्री तथा जम्मू कश्मीर में अब भी राजनैतिक महत्व रखने वाले डा कर्णसिह की याद कोयी याद नहीं आयी। राज्य में राजनैतिक प्रक्रिया सामान्य करने के
भारत सरकार प्रयासों में उनकी अहम भूमिका हो सकती थी।यह बात अलग है कि वार्ता में शामिल होने को अगर निमांत्रण भेजा जाता तो हो सकता है कि वह इसे अपने अंदाज में अस्वीकार ही कर देते किन्तु इसके बावजूद एक बडा संदेश राज्य के नागरिकों को जाता ।यह भी दिलचस्प तथ्य है कि ,भारत और पाकिस्तान के बीच जब भी संबध सुधार के लिये वार्ता प्रयास हुए है, कश्मीर का मुद्दा जरूर पाकिस्तान ने उठाने का हरभरसक प्रयास किया है,इसी प्रकार पाकिस्तान की गैर मौजूदगी के बावजूद हमारे अपने ही इसे उठा डालते रहे हैं।हो सकता है कि संयोग वश ही यह होता रहा हो।लेकिन यह जरूर सही है कि जब जब कश्मीर पर वार्ता के दौरान पाकिस्तान को या पाकिस्तान भारत के बीच संबध सुधार के प्रयास में कश्मीर को बीच में लाने की कोशिश हुई प्रयास शून्य ही रहे।
वे कहते हैं'कश्मीर का राग' हमारी बेबसी
आगरा में 14–16 जुलाई 2001हुई भारत पाक शिखर वार्ता के दौरान भी कश्मीर का मसला उठाकर पाकिस्तान के तत्कालीन राष्ट्रपति परबेज मुशरफ ने सबकुछ शून्य कर दिया था। यही नहीं वह भारत से रचाना होने से पूर्व यह भी साफ कर गये कि अगर 'वह कश्मीर का मामला नहीं उठायेंगे तो उन्हे दिल्ली की उसी हवेली में लौटकर आना पडेगा जहां उन्होंने बचपन गुजारा था।
पी डी पी का बेसुरा राग
पाकिस्तान के किसी भी नेता की कश्मीर का राग अलापने की मजबूरी तो समझ में आती है ,लेकिन दिल्ली में 24 जून 2021 को वार्ता के लिये बुलाये गये कश्मीरी के 14 राजनीतिज्ञों की बैठक में शामिल होने वाली पूर्व मुख्यमंत्री एवं पीडीपी अध्यक्ष महबूबा मुफ्ती सईद के द्वारा भारत सरकार 'पाकिस्तान के साथ वार्ता करने की बिनामांगी सलहा देना कदापि उपयुक्त नहीं लगता।
दरअसल कश्मीर को लेकर चाहे अंतर्राष्ट्रीय हो या राष्ट्रीस्तारीय प्रयास वरिष्ठ राजनीतिज्ञ डा कर्ण सिह की के महत्व को 1999 के बाद से नकारा ही जाता रहा है। जबकि 90 वर्ष की उम्र के बावजूद कश्मीर की सियासत और उससे जुडे मसलों में से तमाम में दखल रखने की अब क्षमता रखते हैं।
2001की शिखरवार्ता के दौरान भी भूले थे
2001 में भी अगर डा कर्णसिह को भी किसी न किसी रूप में भारत के वार्ताकार दल में स्थान दे दिया जाता तो पाकिस्तानी मीडिया के द्वारा विलय संबधी मुद्दों को उठाने की गुंजायिश ही नहीं रहती। खैर वह तो रही बीस साल पुरानी बात तब से अब तक हालात काफी बदलचुके हैं। लेकिन सम्मानजनक राजनीतिज्ञ के रूप में डा कर्ण सिह का न तो महत्व कम हुआ है और नहीं वह कश्मीर के मसलों को लेकर गैर जरूरी ही हुए है।
पंद्रहवें आमंत्रित हो सकते थे डा कर्णसिंह
इस बार भी अगर 14 राजनीतिज्ञो के साथ ही डा कर्ण सिह को भी केन्द्र सरकार बुला लेती तो कश्मीर के भारत में विलय और पाकिस्तान का राग अलापने वालों को बेबजह के मुददे उठाने की गुंजायिश ही नहीं रहती। अगर भूल चूक से कोयी कुछ कहने का सहास भी करता तो उसे कश्मीर विलय की घटनाओं के साक्षी मौजूदा समय के 'भीष्म पितामाह ' से निरुत्तर करने वाला जबाब भी मिल जाता। जो भी हो चूक तो हुई ही कश्मीर के पूर्व राजपरिवार के सदस्यों में से कई की देश के कई अन्य पूर्व राजपरिवरों के समान ही राजनीति और विरासत संरक्षण में भरपूर दिलचस्पी रखते हैं।
कश्मीरी पडितों की समस्या अंडर प्ले
गुपकार गठबन्धन के सदस्य कश्मीर और कश्मीरियत से संबधित तमाम मुददों पर तो खुलकर सामने आये हैं किन्तु एक बडी समस्या कश्मीरी पंडितों की बापसी के मामले में अपना स्टैंड स्पष्ट करने से बचते रहे हैं। देश के कई राज्यों में बिखरे होने के बावजूद कश्मीरी पंडित अपने घर लौटने के मामले में एक जुट हैं। वह राजनैतिक प्रक्रिया की बहाली में प्रत्यक्ष भागीदारी का अवसर मिलने की अपेक्षा रखते हैं।